भारतीय राजनीति में जातीय आरक्षण हमेशा से एक संवेदनशील और जटिल मुद्दा रहा है। 1 मई 2025 को मोदी सरकार ने इस मुद्दे पर बड़ा कदम उठाते हुए जातीय जनगणना कराने का फैसला किया। यह फैसला आगामी जनगणना के साथ लागू होगा और इसके बाद जातीय आंकड़े एकत्रित किए जाएंगे। इस फैसले ने विपक्षी दलों की सियासी रणनीति को झटका दिया है, क्योंकि विपक्ष लंबे समय से जातीय जनगणना की मांग कर रहा था। इस लेख में हम समझेंगे कि इस फैसले के क्या मायने हैं और इसके राजनीति पर क्या असर हो सकता है।
विपक्ष के हाथ से मुद्दा गया
पिछले कुछ महीनों से अखिलेश यादव, राहुल गांधी, तेजस्वी यादव, और अन्य विपक्षी नेताओं ने जातीय जनगणना को लेकर आवाज उठाई थी। उनका कहना था कि जितनी भागीदारी उतनी हिस्सेदारी, और इसके लिए जातीय जनगणना एक महत्वपूर्ण कदम है। लेकिन अब मोदी सरकार ने जातीय जनगणना कराने का फैसला लेकर विपक्ष के हाथ से यह मुद्दा छीन लिया है। इस फैसले के बाद अब विपक्षी नेताओं को जातीय जनगणना का मुद्दा खो चुका है, और सरकार इसे अपने पक्ष में भुना सकती है।
जातीय जनगणना का राजनीतिक पहलू
मोदी सरकार के इस फैसले के बाद अब चुनावी राज्यों यूपी और बिहार में इसका अधिक असर देखने को मिलेगा, क्योंकि यहां पर ओबीसी (अन्य पिछड़ा वर्ग) और दलित वोट बैंक महत्वपूर्ण हैं। पिछले कुछ वर्षों से इन दोनों राज्यों में जातीय जनगणना का मुद्दा गर्म था, और अब इस फैसले से भाजपा ने इस मुद्दे को पूरी तरह से अपने पक्ष में मोड़ लिया है। खासकर बिहार में, जहां आरजेडी और जेडीयू की सरकार के दौरान जातीय जनगणना की शुरुआत हुई थी, भाजपा ने अब इस मुद्दे को एक कदम और आगे बढ़ा दिया है। इस कदम से भाजपा का लक्ष्य इन राज्यों के ओबीसी और दलित वोट बैंक को अपनी ओर खींचना है।
कांग्रेस और बीजेपी के बीच का खेल
कांग्रेस लंबे समय से जातीय जनगणना के आंकड़े सार्वजनिक करने की बात कर रही थी, लेकिन जब कांग्रेस के समय 2011 में सामाजिक सर्वेक्षण किया गया था, तो उसके आंकड़े कभी सार्वजनिक नहीं किए गए। अब भाजपा इस मुद्दे को लेकर कांग्रेस पर दबाव बनाएगी कि उसने उस समय आंकड़े क्यों प्रकाशित नहीं किए। इससे भाजपा को कांग्रेस के खिलाफ एक और मौका मिलेगा, और इस मुद्दे को चुनावी मोर्चे पर उठाकर वह कांग्रेस की नीतियों को सवालों के घेरे में ला सकती है।
कोटे में कोटा का मुद्दा
जातीय जनगणना के बाद एक बड़ी चुनौती यह होगी कि आरक्षण की 50 प्रतिशत सीमा को कैसे संभाला जाएगा। यदि जातीय जनगणना के बाद ओबीसी में छोटी जातियों का प्रतिशत बढ़ता है, तो सरकार को कोटे में कोटा का सिस्टम लागू करना पड़ सकता है। यह व्यवस्था सुनिश्चित करेगी कि बड़ी जातियां, जिनका जनाधार अधिक है, अपनी हिस्सेदारी बनाए रख सकें। लेकिन अगर सुप्रीम कोर्ट ने इस मुद्दे को चुनौती दी तो आरक्षण की सीमा बढ़ाने के लिए अदालत की मंजूरी लेनी पड़ेगी। यह एक संवेदनशील मामला हो सकता है, जो अदालत में फंसेगा।
बिहार में चुनावी असर
बिहार में, जहां 63 प्रतिशत आबादी ओबीसी की है, इस फैसले का राजनीतिक असर अधिक होगा। यहां की यादव, कुर्मी, कोईरी, केवट, पासी, कुशवाहा, निषाद जैसी जातियां भाजपा और कांग्रेस दोनों के लिए महत्वपूर्ण वोट बैंक रही हैं। कांग्रेस, जो पहले इन जातियों के बीच अपना प्रभाव बढ़ाने की कोशिश कर रही थी, अब मोदी सरकार के इस कदम के बाद अपनी रणनीति में बदलाव कर सकती है। भाजपा इस फैसले का फायदा उठाकर ओबीसी वोट बैंक को अपनी ओर आकर्षित कर सकती है।
आखिरकार क्या होगा इसका असर?
मोदी सरकार ने जातीय जनगणना के फैसले के साथ न केवल विपक्ष के मुद्दे को समाप्त किया है, बल्कि 2024 के लोकसभा चुनाव के लिए एक मजबूत कार्ड खेला है। अब यह देखना होगा कि इस फैसले का क्या परिणाम होगा, खासकर चुनावी राज्यों में। विपक्षी दलों को इस फैसले का विरोध करने का मौका मिलेगा, लेकिन यह भी निश्चित है कि सरकार इसे अपने पक्ष में भुना सकती है। भाजपा इस फैसले के जरिए ओबीसी और दलित वोट बैंक में अपनी पकड़ मजबूत कर सकती है, और आने वाले चुनावों में इसे एक बड़े मुद्दे के रूप में पेश कर सकती है।
जातीय जनगणना एक संवेदनशील और महत्वपूण कदम है, जो राजनीति में बड़ा बदलाव ला सकता है, और इसके प्रभाव से आने वाले चुनावों में भारतीय राजनीति में नई दिशा मिल सकती है।